Monday 17 August 2020

भाषा हीन दारिद्र भाषा वाला लोकतंत्र

भाषा हीन दारिद्र भाषा वाला लोकतंत्र



यह कहने और सुनने में कोई आपत्ति नही होनी चाहिये कि लोकतंत्र द्धारा अर्जित भाषा का लोप हो रहा है। भाषा का दारिद्रपन अपनी पराकाष्ठा तक पहुँच कर नग्न नृत्य कर रहा है। टी0वी0 पर एंकरो की भाषा, सदन की भाषा, राजनेताओं की भाषा, सुनने से लगता है कि           अब तो यही भाषा आॅफिशियल होती जा रही है। मुझे लगता है अब तक लोगो की पहचान उसकी भाषा, वाणी से होती थी। उसके चरित्र व आचरण का पैमाना भाषा ही होती थी। विकार ग्रस्त भाषा ने मानव स्वाभाव का चरित्र ही बदल दिया है। नैतिक बल कर पराभव हुआ है। वहीं दूसरी ओर भाषा ने अपने स्वरूप को भी बदला है। नई नई भाषाओं का जन्म हुआ है। उदाहरण के लिये देह की भाषा जिसे अगं्रेजी में ‘‘ बाॅडी लैंग्वेज ’’ के नाम से जानते है। दूसरा है कूटनीति की भाषा जिससे दो देशो के मध्य युद्ध जीते जाते हैं। पक्ष की भाषा, राष्ट्र की भाषा- यहाँ तक तो ठीक है किंतु इसका परिणाम कुछ इस तरह हो रहा है। जैसे विपक्ष के सवालो का सम्बोधन ‘‘ राष्ट्रदोह ’’ के नाम से होने लगा है क्यांेंकि विपक्ष यदि सवाल खड़े करता है तो विपक्ष राष्ट्रदोही हो जाता है। क्योंकि विपक्ष की भाषा को राष्ट्रद्रोह की भाषा से परिभाषित किया जाने लगा है।
इस तरह 20 वीं सदी में भाषा में नफरत के भाव का उदय हुआ। यह नफरत का भाव देशद्रोह में बदल गया। नही तो सरकार से सवाल करने पर कोई कैसे राष्ट्रदोही हो सकता है??? सरकार भी ऐसी भाषा से डरती है। तभी तो सवाल उठाने पर सरकार शक्ति का प्रयोग करती है। पुलिस जेल तक की व्यवस्था करती है।
प्रधानमंत्री से सवाल पूछने पर पूछने वालो के लिये एक नये शब्द ‘‘ अरबन नक्सल ’’ का आर्विभाव हुआ है। अब प्रधानमंत्री से सवाल पूछने पर ‘‘ अरबन नक्सल ’’ जैसी संवैधानिक धाराओं का उपयोग होने लगा है। फिर भी हम सोच रहे थे कि राष्ट्र की भाषा क्या है ??? तो इसकी व्याख्या तथ्यो से परे जो कुतर्क की भाषा है वही राष्ट्र की भाषा बन गयी।           यहाँ यह जानना आवश्यक हो जाता है कि क्या सरकार व देश एक ही ‘‘शब्द’’ है ??? नही!!! दोनो में अंतर है। यदि सरकार से सवाल किया जाये तो देशद्रोह कैसे हो सकता है ??? किंतु सच में है तो यही। इसे कहते है बौद्धिक दारिद्रपन व भाषा का दारिद्र जिस राष्ट्र की भाषा दरिद्र हो जाये वह राष्ट्र भी दारिद्र हो जाता है। फिर राष्ट्र हित या राष्ट्र समृद्धि की भाषा क्या है?? राजनीतिक वफादारी ही राष्ट्रहित बन जाये तों इसे क्या कहा जाये ??? सरकारे जो भी राष्ट्र हित या जिस भाषा में बोल दे वही राष्ट्र हित या राष्ट्र की भाषा के रूप में पहचानी जायेगी। क्योंकि विपक्ष के सवाल तो राष्ट्रदोह की भाषा होती चली जा रही है। इसका तात्पर्य तो यह हुआ कि अनुकूल वचन देश हित व प्रतिकुल वाणी देशद्रोह ???
अभी तो भाषा की मर्यादा समाप्त हो गयी है बाद में तो भाषा ही मौन हो जायेगी या समाप्त हो जायेगी। वर्तमान में इसी कारण कटुता के भाव बढ़ रहे है। चिंता इस बात कि है कि भाषा की ताकत का नया आाधार क्या होगा ??? वर्तमान में दारिद्रयुक्त भाषा लोकतंत्र को प्राणहीन कर रही है। भाषा विलोप के साथ लोकतंत्र का विलोप निश्चित है यदि समय रहते हम इसे सुधार नही पाये तो फिर क्या होगा वह ईश्वर ही जाने !!!


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